Natasha

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राजा की रानी

“हाँ, ले आ। और बंकू यदि मकान में हो तो उसे जरा भेज देना।” मैंने फिर अपनी ऑंखें बन्द कर लीं। थोड़ी ही देर बाद बाहर से चट्टियों की आवाज सुन पड़ी। प्यारी ने पुकारकर कहा, “कौन, बंकू? “जरा इधर तो आ।”

उसके पैरों के शब्द से मालूम हुआ कि उसने अतिशय संकुचित भाव से अन्दर प्रवेश किया है। प्यारी उसी तरह पंखा झलते बोली, “जरा कागज-पेन्सिल लेकर बैठ जा। क्या-क्या लाना है, उसकी फेहरिस्त बनाकर दरबान के साथ जरा बाजार जा बेटा, घर में कुछ है नहीं।”

मैंने देखा, यह एक बिल्कु'ल नया वाकया है। बीमारी की बात अलहदा पर उसे छोड़कर इसके पहले किसी दिन मेरे बिछौने के इतने समीप बैठकर उसने हवा तक नहीं की थी। किन्तु यह भी, न हो तो, मैं एक दिन सम्भव मान सकता। किन्तु, यह जो उसने रंच-मात्र भी दुविधा नहीं की, सब नौकर-चाकरों के, यहाँ तक कि बंकू के सामने भी दर्प के साथ अपने आपको प्रकट कर दिया- इसके अपूर्व सौन्दर्य ने मुझे अभिभूत कर डाला। मुझे उस दिन की बात याद आ गयी जिस दिन पटने के मकान से मुझे इसलिए बिदा लेनी पड़ी थी कि यह बंकू ही कुछ और खयाल न करने लगे। उस दिन के साथ आज के आचरण में कितना अन्तर है।

चीज-बस्त की फेहरिस्त बनाकर बंकू चला गया। रतन भी चाय-तमाखू देकर नीचे चला गया। प्यारी कुछ देर चुपचाप मेरे मुँह की ओर निहारती रही; फिर एकाएक बोली, “तुमसे मैं एक बात पूछती हूँ- अच्छा, रोहिणी बाबू और अभया में से किसका प्यार अधिक है, बता सकते हो?”

मैंने हँसकर कहा, “जो तुम पर पूरी तरह हावी हो गयी है, निश्चय से उस अभया का ही प्यार अधिक है।”

राजलक्ष्मी भी हँस पड़ी, बोली, “यह तुमने कैसे जाना कि वह मुझ पर हावी हो गयी है?”

मैंने कहा, “चाहे जैसे जाना हो, पर बात सच है या नहीं, यह बताओ?”

राजलक्ष्मी क्षण-भर स्थिर रहकर बोली, “सो जैसे भी हो, किन्तु, अधिक प्यार तो रोहिणी बाबू ही करते हैं। दरअसल वे इतना प्यार करते थे, इसीलिए उन्होंने इतना बड़ा दु:ख अपने सिर पर उठा लिया। अन्यथा यह उनका कोई अवश्य कर्त्तव्य तो था नहीं। उनकी अभया को कितना सा स्वार्थ-त्याग करना पड़ा?”

उसके सवाल को सुनकर मैं सचमुच ही विस्मित हो गया। मैं बोला, बल्कि मैं तो ठीक इससे उलटा देखता हूँ। और उस हिसाब से जो कुछ कठिन दु:ख-भोग और त्याग है, वह सब अभया को ही करना पड़ा है। तुम इस अभ्रान्त सत्य को क्यों भूली जाती हो कि रोहिणी बाबू चाहे जो करें, समाज की नजरों में आखिर वे मर्द हैं।

राजलक्ष्मी ने सिर हिलाकर कहा, “मैं कुछ भी नहीं भूलती। उन्हें मर्द बतलाकर सहज में बच निकलने के जिस मौके की ओर तुम इशारा कर रहे हो वह अत्यन्त क्षुद्र और अधम पुरुषों के लिए है- रोहिणी बाबू सरीखे मनुष्य के लिए नहीं। शौक पूरा हो गया, अथवा कुछ सार न रहा, तो छोड़-छाड़कर फेंककर भाग सकते हैं और घर लौटकर फिर गण्य-मान्य भद्र मनुष्यों की तरह जीवन-यात्रा कर सकते हैं- यही न कहते हो? कर सकते हैं-ठीक है; किन्तु, क्या सभी कर सकते हैं? तुम कर सकते हो? तब, जो नहीं कर सकता उसके बोझ के वजन को तो जरा सोच देखो। उसे अपना निन्दित जीवन मकान के निराले कोने में काट डालने का भी सुभीता नहीं। उसे तो संसार के बीच द्वन्द्व-युद्ध में उतर आना होगा, अविचार और अपयश का बोझा चुपचाप अकेले ही वहन करना पड़ेगा। अपने एकान्त-स्नेह की पात्री को- भावी सन्तान की जननी को समाज के सारे अपमानों और अकल्याणों से बचाकर रखना होगा। तुम क्या इसे मामूली कष्ट समझते हो? और, सबसे बढ़कर दु:ख यह है कि जो अनायास ही इस दु:ख के बोझे को उतारकर खिसक सकता है, सर्वनाशी विकट प्रलोभन से अपने आपको रात-दिन बचाकर चलने का गुरुभार भी उसको ही लिये घूमना पड़ता है। दु:ख के तराजू में इस आत्मोत्सर्ग के साथ समतौलता बनाए रखने के लिए जिस प्रेम की जरूरत है, उसे यदि पुरुष अपने भीतर से बाहर न प्रकट कर सके, तो किसी भी स्त्री के लिए यह सम्भव नहीं है कि वह उसे पूरा कर सके।”

इस बात को इस पहलू से, इस तरह, कभी सोचकर नहीं देखा था। रोहिणी का वह सीधा-सादा गुमसुम भाव और उसके बाद, अभया जब अपने पति के घर चली गयी तब उसके उसी शान्त मुखमण्डल के ऊपर अपरिसीम वेदना को चुपचाप सहन करने का जो चित्र मैंने अपनी ऑंखों देखा था, वही पल-भर में ज्यों का त्यों, प्रत्येक रेखा सहित मेरे मन में खिंच गया। किन्तु, मुँह से मैंने कहा, “चिट्ठी में तो तुमने सिर्फ अभया के लिए ही पुष्पांजलि भेजी थी।”

राजलक्ष्मी बोली, “उनका जो प्राप्त है वह आज भी उन्हें ही देती हूँ। क्योंकि, मेरा विश्वास है कि जो भी पाप या अपराध था उसने उनके आन्तरिक तेज से जलकर उन्हें शुद्ध-निर्मल कर दिया है। यदि ऐसा न होता, तो आज वे बिल्कुकल साधारण स्त्रियों के समान ही तुच्छ-हीन हो जाती।”

“हीन क्यों?”

राजलक्ष्मी ने कहा, “खूब! पति-परित्याग के पाप की भी कोई सीमा है? उस पाप को ध्वंहस करने योग्य आग उनमें न होती तो आज वे...”

मैंने कहा, “आग की बात जाने दो। किन्तु उनका पति कैसा नष्ट है, सो तो एक दफे सोच देखो।”

राजलक्ष्मी बोली, “पुरुष जाति चिरकाल से ही उच्छृंखल रही है- चिरकाल से ही कुछ-कुछ अत्याचारी भी रही है; किन्तु, इसीलिए तो स्त्री के पक्ष में भाग खड़े होने की युक्ति काम नहीं दे सकती। स्त्री-जाति को सहन करना ही होगा; नहीं तो संसार नहीं चल सकता।”

बात सुनकर मेरे सारे विचार गड़बड़ा गये। मन ही मन बोला, “यह स्त्रियों का वही सनातन दासत्व का संस्कार है! कुछ असहिष्णु होकर पूछा, “तो फिर अभी तक तुम 'आग आग, क्या बक रही थीं?”

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